Friday, August 27, 2010

वों यादें जो कभी बन गयी थी मेरी सहेली



वों यादें जो कभी बन गयी थी मेरी सहेली,

आज वही मेरे जेहन में चुभ रही हैं बन के पहेली.

वह वक़्त ऐसा था या मेरे ज़ज्बात बदल गए हैं?

या जीने के लिए सहारे मिल गए हैं?


हलक से निकलते पर होंठ हिल नहीं पातें,

शायद उन जवाबों को आवाज़ नहीं देना चाहते.

उनको भी मालूम है

पर ना जाने मुझ ही से क्यों सुनना चाहते हैं?

शायद उन्हें एहसास नहीं या अंजान रहना चाहते हैं.

वों यादें जो कभी बन गयी थी मेरी सहेली,

आज वही मेरे जेहन में चुभ रही हैं बन के पहेली.


ना जाने मेरी डब-डबाई आँखें सब कुछ कहना चाहती हैं.

बनके आंसू उन्हें होने का एहसास दिलाती हैं.

पर शायद वह नहीं थे मेरे नसीब,

या मिल गया था कोई रकीब.

वों यादें जो कभी बन गयी थी मेरी सहेली,

आज वही मेरे जेहन को चुभ रही हैं बन के पहेली.